
सावन माह आते ही पेड़ की डाल पर पड़ जाते झूले
अब नही सुनाई दे रही है गावों में कजरी गीत की गुनगुनाहट
दैनिक अयोध्या टाइम्स
ब्यूरो चीफ जयराम यादव
हाटाबाजार गोरखपुर।आज के आधुनिक की दौर में बरसों पुरानी पंरपरा सावन माह में कजरी की गुनगुनाहट गावों से विलुप्त होती नजर आ रही है।एक समय था।जब सावन माह के शुरु होते ही बारिश की पुहारों के संग पेडो़ पर झूले और कजरी की धुन से वातावरण में मिठास गुज उठती थी।लेकिन अब गावों ना झुला दिख रहा है।न ही कही कजरी केक्षवो मीठे मीठे गीत सुनाई दे रही है।अधुनिकता के दौर में परपंराए व सांस्कृतिक धरोहर धीरे धीरे विलुप्त होती जा रही है। आप बता दे अभी एकाध दशक पहले तक सावन माह शुरु होते ही गावों में झुला के साथ ही कजरी के मीठे गीत श्रीराम चन्द्र बनवा को जाने लगे भरत जी मनाने लगे व पिया मेहंदी मगा द मोती झील से जाये के साइकिल से ना, हरि हरि बाबा के दुवरी मोरवा बोले ये हरि आदि कजरी की गीत काफी प्रचलित रही ।वही धान के खेतों मे महिलाएं सोहनी के समय कजरी के गीत गा कर जश्न मना थी।गावों में पहले लड़कियां और महिलाएं एक जगह इकठा होकर कजरी गाया करती थी।लेकिन आज के समय में प्रेम का अभाव साफ दिखाइ दे रहा है।अब इसे समय का अभाव कहे या अधुनिक युग के चलते कजरी तो दुर कई घरेलू परंपराएं व संस्कृति विलुप्त होती जा रही है।गावों में नागपंचमी के दिन को पचई का त्यौहार मनाया जाता है।गगहा क्षेत्र की गरयाकोल गाव निवासी तारा देवी व सुमन देवी का कहना है।कि पहले बर्षा रुतृ शुरु होते ही जैसे जैसे धरती पर हरियाली अपनी छटा बिखेरती थी।युवाओं और युवतियों का उल्लास चरम पर पहुंचने लगता था।गाव में महिलाएं जगह जगह वृक्षों की शाखाओं पर झुला डाल कर कजरी और सावनी गीत गाती थी।उन गीतों में समय व परिस्थितियों कि चर्चा तो होती ही थी भक्ति गीतो का समावेश भी होता था। वहीं नीलम देवी का कहना है।कि सावन माह में बाग बगीचों में अब सावन के गीत नहीं गुजते हरियाली तीज की परंपराएं धीरे धीरे कम होती जा रही है। और इसी के साथ उस समय के प्रचलीत कजरी गीत कि पहचान खतम होती जा रही है।