
ब्यूरो चीफ विपिन सिंह चौहान फर्रूखाबाद भारतीय समाज में विवाह को अब भी एक पवित्र संस्था माना जाता है—एक ऐसा बंधन, जो विश्वास, समर्पण और जीवन भर साथ निभाने की कसमें लेकर जुड़ता है। लेकिन हाल के वर्षों में देशभर से ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं, जो इस संस्था की बुनियाद पर ही सवाल खड़े कर रही हैं। विवाहिता पत्नियों द्वारा अपने प्रेमियों के साथ मिलकर पतियों की योजनाबद्ध हत्या की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। ये घटनाएं अब अपवाद नहीं रह गईं, बल्कि एक उभरती सामाजिक प्रवृत्ति का संकेत बनती जा रही हैं।
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, तमिलनाडु और दिल्ली जैसे राज्यों से सामने आए मामले दर्शाते हैं कि ये हत्याएं भावनात्मक आवेग या आत्मरक्षा में नहीं, बल्कि एक सोची-समझी साजिश के तहत अंजाम दी गईं। बीमा की मोटी रकम, संपत्ति पर अधिकार, प्रेमी के साथ स्वतंत्र जीवन की चाह और पुराने संबंधों से पीछा छुड़ाने की लालसा जैसे कारक इन अपराधों के पीछे सक्रिय हैं। एक छोटे से गांव की रेखा हो या मुंबई की श्रेया, पटना की सरकारी कर्मचारी की पत्नी हो या कोयंबटूर की सॉफ्टवेयर इंजीनियर—हर मामले में एक पैटर्न उभरता है:
पहले विवाह के बाहर संबंध, फिर पति की मौजूदगी को बाधा मानना, और अंत में उसे रास्ते से हटाने के लिए हत्या की साजिश। कुछ मामलों में हत्या को आत्महत्या दिखाने की कोशिश की गई, तो कहीं आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके हत्या को “साफ” और “शक-रहित” बनाने की चेष्टा की गई।
इन घटनाओं में महिला अकेली अपराधी नहीं होती—अक्सर उसका प्रेमी योजना का सूत्रधार होता है। वह ज़हर से लेकर हत्या के औजार तक मुहैया कराता है, और मौका पड़ने पर बयान बदलकर खुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश करता है। ये घटनाएं न केवल एक व्यक्ति की जान लेती हैं, बल्कि पूरे परिवार और समाज को झकझोर देती हैं।
इन अपराधों के पीछे के मनोवैज्ञानिक कारण भी गंभीर विश्लेषण की मांग करते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि जब महिला अपने रिश्ते में लगातार अपमान, हिंसा या असहायता महसूस करती है और उसे समाज या कानून से अपेक्षित समर्थन नहीं मिलता, तब वह अपराध की राह चुन सकती है। हालांकि, यह किसी भी स्थिति में हत्या को जायज़ नहीं ठहराता। हमारे कानून में ऐसे हालात से निपटने के लिए पर्याप्त रास्ते हैं—तलाक, संरक्षण, पुलिस शिकायत, कोर्ट आदि। लेकिन जब कानून का रास्ता छोड़कर व्यक्ति शॉर्टकट चुनता है, तो वह अपराध बन जाता है। इन घटनाओं ने समाज में एक नई बहस को जन्म दिया है। एक वर्ग मानता है कि यह महिलाओं की बढ़ती स्वतंत्रता और अधिकारों का दुरुपयोग है, जबकि दूसरा वर्ग इसे वर्षों की घरेलू हिंसा, दबाव और घुटन का परिणाम बताता है। दोनों ही दृष्टिकोण अपने-अपने तर्कों में आंशिक रूप से सही हैं, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जब रिश्तों में संवाद, समझदारी और सम्मान खत्म हो जाते हैं, तो वे भयावह रूप ले सकते हैं। सरकार और समाज को इस प्रवृत्ति को केवल अपराध के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक विघटन के संकेत के रूप में भी देखना होगा। स्कूलों और कॉलेजों में भावनात्मक शिक्षा, विवाहपूर्व परामर्श, और रिश्तों में संवाद की ट्रेनिंग जैसे कदम उठाने की जरूरत है। मीडिया को भी सनसनी के बजाय संतुलित रिपोर्टिंग करनी चाहिए, ताकि समाज को सही दिशा मिल सके। अंत में, हमें यह समझने की ज़रूरत है कि विवाह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, एक भावनात्मक जिम्मेदारी भी है। जब उसमें ईमानदारी और संवाद खत्म हो जाते हैं, तो अपराध सिर उठाता है। यह हम सबके लिए चेतावनी है—कि रिश्तों को संभालिए, क्योंकि जब वे टूटते हैं, तो सिर्फ दिल नहीं, ज़िंदगियां भी बिखर जाती हैं।